भारत में प्रकृति से प्रेम का एक विशेष नाता हैं !
भारत में प्रकृति से प्रेम का एक विशेष नाता हैं।
माता भूमि पुत्रोअहं पृथिव्या:।
अर्थात पृथ्वी हम सबकी जननी हैं एवं हम उसके पुत्र है। मनुष्य जन्म से ही प्रकृति की गोद में अपना विकास व जीवन व्यतीत करता हैं। इस धरती की चारों तरफ फैली हुई विशाल विविध घाटियां, हरीतिमा मानव मन को न केवल आनन्दित करती है अपितु उसे सुख समृद्धि एवं आरोग्य प्रदान करती हैं।
प्रकृति के ताने-बाने में प्रत्येक जैव/अजैव अस्तित्व का उतना ही महत्वपूर्ण योगदान हैं जितना मानव अपना मानता हैं।
इस जगत में असंख्य प्रजाति के स्पंदनशील चर एवं अचर प्राणी हैं जिनमें परमात्मा ने सर्वाधिक शक्तिशाली एवं बुद्धिमान मनुष्य को बनाया हैं इस नाते मनुष्य का यह कर्तव्य बनता हैं कि वह शेष जगत के कल्याण एवं समृद्धि के लिये कार्य करे।
विश्व कल्याण मनुष्य की प्राथमिकता में होना चाहिए। पर आज परिस्थितियां विपरीत हैं। मानव यह सोचता हैं कि इस धरती की विपुल थातियों पर केवल उसी का अधिकार हैं; वह शेष जगत के रक्षण के स्थान पर भक्षण करने लगा हैं।
अपनी गुण विशिष्टता के कारण मनुष्य को जैव जगत के प्रत्येक वर्ग का हितैषी बनना चाहिए। इस सम्पूर्ण जैव जगत में प्रत्येक प्राणी; प्रजाति पर प्रकृति का समान स्नेह हैं। प्रकृति की प्रत्येक विरासत जैव जगत के हित में ही उपयोग होनी चाहिए।
आज के परिप्रेक्ष्य में मानव के निजी स्वार्थ ने सारी सीमाएं लाँघ दी हैं। भौगोलिक परिस्थितियाँ तेजी से परिवर्तित हो रही है। प्रदूषण, वैश्विक ताप, जलवायु परिवर्तन इन सबके कारण जैव जगत व्याकुल हो उठा हैं। इस समय संसार की कथित प्रगतिशीलता की गति खतरे के निशान से काफी ऊपर हैं जो कि आने वाले समय एवं पीढ़ी के लिए कतई स्वीकार्य नहीं हैं।
हमारी परम्पराएं और इतिहास भी हमारे प्रकृति का उपासक होने के प्रमाण हैं। हमारे धर्मग्रन्थों में तो अजैव पंचतत्वों को भी देवता कहा गया हैं। जहां तक भारतीय समाज की पर्यावरण के प्रति सनातन समझ का प्रश्न हैं तो वृक्ष पूजा हमारी सांस्कृतिक परम्परा रही हैं; वनस्पतियां हमारे लिए देवताओं का निवास हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने तो गीता में स्वयं कहा हैं –
अश्वत्थोअयं वृक्षाणाम। आम-बरगद-तुलसी-आंवला की हमारे यहां पूजा होती हैं। गौ को माँ माना गया हैं। सन्ध्याकाल के पश्चात वनस्पति को हाथ ना लगाने की सीख जहां हमें सिखाई जाती हैं; वहीं पहली रोटी गाय की- पक्षियों के दाना पानी के साथ चींटी के आटे की व्यवस्था भी हमें बचपन से सिखाई जाती हैं।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्' की हमारी गौरवशाली परम्परा हमें जीवमात्र को अपना परिवार मानने की सीख सदैव से देती रही हैं।
पर्यावरण तन्त्र का स्वरूप बिगडऩे से मानव सहित सभी जैवजगत का अस्तित्व खतरे में हैं। इस खतरे से तभी बचा जा सकता हैं जब प्रत्येक नागरिक इसे अपना व्यक्तिगत धर्म समझकर पर्यावरण को अपने आने वाले भविष्य हेतु सुरक्षा प्रदान करें।
आवश्यकता है कि आज हम सभी विशिष्ट एवं आमजन पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति के प्रति न केवल चिंतित हो अपितु इसकी समृद्धि एवं सुधार की दिशा में जनजागरण का एक जन आंदोलन खड़ा करें।
केवल कागजी योजनाओं और भाषणों से यह संकट नहीं मिटने वाला, इसके लिए हमें सामूहिक प्रयत्न करने होंगें। संकल्प करें- इस वर्ष बारिश के मौसम में अपने हाथ से पौधा लगाकर बड़ा करने का। अपने परिवेश में अधिकाधिक वृक्ष लगाकर उन्हें बड़ा करें।
पर्यावरण संकट को दूर करने का एकमात्र उपाय वृक्षारोपण ही हैं। एक वृक्ष अपने आप में जैव विविधता को समेटे होता हैं; यह अपनी जड़ों में मिटटी एवं जल को बांधे रखता है। प्रत्येक वृक्ष अपने आप में एक जल संरचना के बराबर होता हैं। जैव जगत की असंख्य प्रजातियों की वृक्ष शरणस्थली होता है जो जैव विविधता निर्मित करते हैं।
साथ ही आपसे एक और निवेदन है- अपने दैनिक जीवन में प्लास्टिक का कम से कम उपयोग करें; सिंगल यूज प्लास्टिक का तो कतई उपयोग नहीं करें। यह पारिस्थितिकी तन्त्र के लिए कई गुना अधिक खतरनाक हैं।
सदैव ध्यान रखें कि मेरी जीवनचर्या से प्रकृति को तो नुकसान नहीं हो रहा। अपने पर्यावरण के सुधार की दिशा में हम जीवन पद्धति एवं दिनचर्या को विकसित करें जो पर्यावरण को समृद्ध बना सके।
केवल सरकार या समाज की ही जिम्मेदारी नहीं अपितु प्रत्येक नागरिक को जिम्मेदार बनना होगा। प्रकृति को संवारने के लिए जल; जंगल, जमीन, जन, जानवर एवं जलवायु का संरक्षण- सम्वर्धन करें तभी हम आने वाली पीढिय़ों को सुरक्षित भविष्य दे सकेंगे क्योंकि जैव विविधता के हित में ही हम सबका हित निहित हैं।
आइये इस पावन पर्व पर यह प्रण लें कि–
मैं पेड़ पौधें लगाऊंगा..
मैं कभी पेड़ नहीं काटूँगा..
मैं कभी पेड़ नहीं काटने दूंगा..
आज से आप हम वृक्षमित्र है
🇮🇳🕉जय हिंद जय💚हरा भरा भारत🙏🇮🇳
Santoshkumar B Pandey at 10.30Pm.
माता भूमि पुत्रोअहं पृथिव्या:।
अर्थात पृथ्वी हम सबकी जननी हैं एवं हम उसके पुत्र है। मनुष्य जन्म से ही प्रकृति की गोद में अपना विकास व जीवन व्यतीत करता हैं। इस धरती की चारों तरफ फैली हुई विशाल विविध घाटियां, हरीतिमा मानव मन को न केवल आनन्दित करती है अपितु उसे सुख समृद्धि एवं आरोग्य प्रदान करती हैं।
प्रकृति के ताने-बाने में प्रत्येक जैव/अजैव अस्तित्व का उतना ही महत्वपूर्ण योगदान हैं जितना मानव अपना मानता हैं।
इस जगत में असंख्य प्रजाति के स्पंदनशील चर एवं अचर प्राणी हैं जिनमें परमात्मा ने सर्वाधिक शक्तिशाली एवं बुद्धिमान मनुष्य को बनाया हैं इस नाते मनुष्य का यह कर्तव्य बनता हैं कि वह शेष जगत के कल्याण एवं समृद्धि के लिये कार्य करे।
विश्व कल्याण मनुष्य की प्राथमिकता में होना चाहिए। पर आज परिस्थितियां विपरीत हैं। मानव यह सोचता हैं कि इस धरती की विपुल थातियों पर केवल उसी का अधिकार हैं; वह शेष जगत के रक्षण के स्थान पर भक्षण करने लगा हैं।
अपनी गुण विशिष्टता के कारण मनुष्य को जैव जगत के प्रत्येक वर्ग का हितैषी बनना चाहिए। इस सम्पूर्ण जैव जगत में प्रत्येक प्राणी; प्रजाति पर प्रकृति का समान स्नेह हैं। प्रकृति की प्रत्येक विरासत जैव जगत के हित में ही उपयोग होनी चाहिए।
आज के परिप्रेक्ष्य में मानव के निजी स्वार्थ ने सारी सीमाएं लाँघ दी हैं। भौगोलिक परिस्थितियाँ तेजी से परिवर्तित हो रही है। प्रदूषण, वैश्विक ताप, जलवायु परिवर्तन इन सबके कारण जैव जगत व्याकुल हो उठा हैं। इस समय संसार की कथित प्रगतिशीलता की गति खतरे के निशान से काफी ऊपर हैं जो कि आने वाले समय एवं पीढ़ी के लिए कतई स्वीकार्य नहीं हैं।
हमारी परम्पराएं और इतिहास भी हमारे प्रकृति का उपासक होने के प्रमाण हैं। हमारे धर्मग्रन्थों में तो अजैव पंचतत्वों को भी देवता कहा गया हैं। जहां तक भारतीय समाज की पर्यावरण के प्रति सनातन समझ का प्रश्न हैं तो वृक्ष पूजा हमारी सांस्कृतिक परम्परा रही हैं; वनस्पतियां हमारे लिए देवताओं का निवास हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने तो गीता में स्वयं कहा हैं –
अश्वत्थोअयं वृक्षाणाम। आम-बरगद-तुलसी-आंवला की हमारे यहां पूजा होती हैं। गौ को माँ माना गया हैं। सन्ध्याकाल के पश्चात वनस्पति को हाथ ना लगाने की सीख जहां हमें सिखाई जाती हैं; वहीं पहली रोटी गाय की- पक्षियों के दाना पानी के साथ चींटी के आटे की व्यवस्था भी हमें बचपन से सिखाई जाती हैं।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्' की हमारी गौरवशाली परम्परा हमें जीवमात्र को अपना परिवार मानने की सीख सदैव से देती रही हैं।
पर्यावरण तन्त्र का स्वरूप बिगडऩे से मानव सहित सभी जैवजगत का अस्तित्व खतरे में हैं। इस खतरे से तभी बचा जा सकता हैं जब प्रत्येक नागरिक इसे अपना व्यक्तिगत धर्म समझकर पर्यावरण को अपने आने वाले भविष्य हेतु सुरक्षा प्रदान करें।
आवश्यकता है कि आज हम सभी विशिष्ट एवं आमजन पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति के प्रति न केवल चिंतित हो अपितु इसकी समृद्धि एवं सुधार की दिशा में जनजागरण का एक जन आंदोलन खड़ा करें।
केवल कागजी योजनाओं और भाषणों से यह संकट नहीं मिटने वाला, इसके लिए हमें सामूहिक प्रयत्न करने होंगें। संकल्प करें- इस वर्ष बारिश के मौसम में अपने हाथ से पौधा लगाकर बड़ा करने का। अपने परिवेश में अधिकाधिक वृक्ष लगाकर उन्हें बड़ा करें।
पर्यावरण संकट को दूर करने का एकमात्र उपाय वृक्षारोपण ही हैं। एक वृक्ष अपने आप में जैव विविधता को समेटे होता हैं; यह अपनी जड़ों में मिटटी एवं जल को बांधे रखता है। प्रत्येक वृक्ष अपने आप में एक जल संरचना के बराबर होता हैं। जैव जगत की असंख्य प्रजातियों की वृक्ष शरणस्थली होता है जो जैव विविधता निर्मित करते हैं।
साथ ही आपसे एक और निवेदन है- अपने दैनिक जीवन में प्लास्टिक का कम से कम उपयोग करें; सिंगल यूज प्लास्टिक का तो कतई उपयोग नहीं करें। यह पारिस्थितिकी तन्त्र के लिए कई गुना अधिक खतरनाक हैं।
सदैव ध्यान रखें कि मेरी जीवनचर्या से प्रकृति को तो नुकसान नहीं हो रहा। अपने पर्यावरण के सुधार की दिशा में हम जीवन पद्धति एवं दिनचर्या को विकसित करें जो पर्यावरण को समृद्ध बना सके।
केवल सरकार या समाज की ही जिम्मेदारी नहीं अपितु प्रत्येक नागरिक को जिम्मेदार बनना होगा। प्रकृति को संवारने के लिए जल; जंगल, जमीन, जन, जानवर एवं जलवायु का संरक्षण- सम्वर्धन करें तभी हम आने वाली पीढिय़ों को सुरक्षित भविष्य दे सकेंगे क्योंकि जैव विविधता के हित में ही हम सबका हित निहित हैं।
आइये इस पावन पर्व पर यह प्रण लें कि–
मैं पेड़ पौधें लगाऊंगा..
मैं कभी पेड़ नहीं काटूँगा..
मैं कभी पेड़ नहीं काटने दूंगा..
आज से आप हम वृक्षमित्र है
🇮🇳🕉जय हिंद जय💚हरा भरा भारत🙏🇮🇳
Santoshkumar B Pandey at 10.30Pm.
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